दर्द जब
सहन और
बर्दास्त से
हो जाए बाहर
तो उसे व्यक्त
कर दो
मगर सवाल ये है
कि कहे तो
किससे कहे !
इंसान है संग
दिल
और दीवारो के
सिर्फ़ कान ही नहीं
हज़ारों ज़ुबान
भी है
जहाँ से निकल
कर दर्द
कहकहा बन कर
हवाऒं में लगता
है गूंजने
और कानो में
पिघले हुए
शीशे की तरह
गिर कर
बढ़ा देते है
दर्द ।
रहम किसी के
पास नहीं है
और हमदर्दी की
फ़िजूलखर्ची
कोई करता नहीं,
दर्द को लफ़्ज
दो
और क़ैद कर लो
पन्नों पर,
जितना सह सकते
हो सहो
पर दर्द किसी
से मत कहो ।
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